विज्ञान और समाज Science And Society

विज्ञान और समाज

“विज्ञान से न सिर्फ समूचा समाज आच्छादित है, अपितु समाज के प्रत्येक व्यक्ति से इसका प्रत्यक्ष संबंध है। सच तो यह है कि विज्ञान समाज के लाभ के लिए समाज में सीखने की एक सनातन प्रक्रिया है।”
“हम साक्षर तो हुए, किंतु वैज्ञानिक नहीं हो सके। आज सही अर्थों में राष्ट्र निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि हम साक्षर नहीं, बल्कि वैज्ञानिक पैदा करें।”

⇒ प्रायः लोग यह धारणा बना लेते हैं कि विज्ञान का संबंध सिर्फ वैज्ञानिकों से है या उनसे जो विषय के रूप में विज्ञान का अध्ययन करते हैं। ऐसा सोचना संगत नहीं है। यह धारणा विज्ञान को एक दायरे में सीमित करती है, जबकि विज्ञान को हम किसी दायरे में बांध नहीं सकते हैं। इसका फलक व्यापक है। विज्ञान के संबंध में यह सोच भी भ्रामक है कि विज्ञान के तहत भौतिकी और गणित जैसे विषयों की समस्याओं का हल ढूंढ़ा जाता है। विज्ञान से न सिर्फ समूचा समाज आच्छादित है, अपितु समाज के प्रत्येक व्यक्ति से इसका प्रत्यक्ष संबंध है। सच तो यह है कि विज्ञान समाज के लाभ के लिए समाज में सीखने की एक सनातन प्रक्रिया है। विज्ञान समाज – के लाभ के लिए समाज में ही पुष्पित-पल्लवित होता है तथा समाज को उन्नत व प्रगतिशील बनाता है। यही कारण है कि विज्ञान को समाज से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता है। विज्ञान समाज एवं संस्कृति दोनों को प्रभावित करता है।

⇒  वस्तुतः विज्ञान समाज से अलग नहीं है, अपितु यह एक सामाजिक घटनाक्रम है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि विज्ञान का भी अपना अलग समाजशास्त्र होता है। विज्ञान एक सामाजिक रूप से अंतःस्थापित गतिविधि है। इसके विकास में समाज का दृष्टिकोण एवं अंतर्ज्ञान सहायक सिद्ध होता है। यह कहना असंगत न होगा कि विज्ञान समाज को संवारता है, तो समाज विज्ञान को। दोनों अभिन्न रूप से गुंफित हैं। इन्हें विलग नहीं किया जा सकता है। जिस समाज में वैज्ञानिक सोच का अभाव होता है, वह समाज उन्नतशील नहीं बन पाता। कहने का आशय यह है कि विज्ञान को हमें एक सामाजिक कर्त्तव्य के रूप में देखना चाहिए।

‘ऑक्सफोर्ड एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी’ में दी गई विज्ञान की परिभाषा से भी यह ध्वनित होता है कि विज्ञान से समाज आच्छादित है और दोनों का आपस में गहरा संबंध है। इस परिभाषा में यह रेखांकित किया गया है कि विज्ञान खास तौर पर मानव व्यवहार एवं समाज के पहलुओं के साथ जुड़े विषय विशेषों के संबंध में ज्ञान को व्यवस्थित करने की एक प्रणाली है। यानी मानव और समाज दोनों इसमें शामिल हैं। विज्ञान का उद्भव कहीं अन्यत्र नहीं हुआ। इसका उद्भव समाज में ही हुआ, समाज से परे नहीं। समाज से उद्गत
विज्ञान से ही उद्योग और भौतिक पर्यावरण का उद्भव हुआ, साथ ही मानवीय समस्याओं का भी, जिनसे समाज ने समायोजन भी किया।

⇒हम अक्सर विज्ञान को एक अलग विषय के रूप में निरूपित कर इसे एक सीमा रेखा में कैद करने की भूल करते हैं। यह उचित नहीं है। विज्ञान का फलक एक विषय से आगे बहुत ही विस्तृत एवं विस्तारित है। वस्तुतः अध्ययन एवं व्यवहार की प्रत्येक शाखा विज्ञान को जन्म देती है। विज्ञान तो लकीर से हट कर सोचने की एक जिज्ञासा है तथा जिज्ञासा के साथ कुछ भी किया जाना ही विज्ञान का आधारभूत नियम है। जिज्ञासा एवं जरूरत से विज्ञान की विकास यात्रा शुरू होती है। यह जिज्ञासा और जरूरत समाज में प्राचीनकाल से विद्यमान रही है और इसी के चलते प्राचीन मानव द्वारा अनेक खोजें और आविष्कार किए गए। यथा- अग्नि, शिकार के उपकरण, पहिया, हल आदि। जिज्ञासाओं और जरूरतों के साथ यह सिलसिला आगे बढ़ता चला गया। जरा सोचिए, आइंस्टीन यदि जिज्ञासु प्रवृत्ति का न होता, तो क्या वह सामाजोपयोगी इतने सारे आविष्कार कर पाता ? इससे साबित होता है कि विज्ञान एक विषय मात्र नहीं है, बल्कि जिज्ञासा के साथ कुछ भी किया जाना विज्ञान के दायरे में आता है।

⇒ मानव समाज का कोई भी घटक विज्ञान से अछूता नहीं है। अब हम अर्थव्यवस्था को ही लें, तो पाते हैं कि इससे विज्ञान का निकट का रिश्ता है। देश के उच्च सकल घरेलू उत्पाद उसी विज्ञान की देन होते हैं, जिसका यह अनुकरण करता है। उच्च सकल घरेलू उत्पाद वस्तुओं एवं सेवाओं के अधिक उत्पादन पर निर्भर करता है, जो अंततः समाज में निर्मित की जाने वाली क्षमताओं, युवकों, कृषकों और श्रमिकों आदि के बीच वैज्ञानिक कुशलताओं के विकास, उच्च उत्पादकता वाले बीजों की किस्मों के द्वारा कृषि के क्षेत्र में किए गए नवाचारों, सूखा प्रतिरोधी एवं बाढ़ प्रतिरोधी फसलों, जैविक कृषि, सिंचाई के नवीन और कुशल तरीकों, अनाज के वैज्ञानिक भंडारण, बेहतर परिवाहन तथा ऐसी ही अन्य अनेक बातों पर निर्भर करते हैं।

विज्ञान का संबंध राजनीति से भी है, यह स्वयं प्राचीन राजनीति विज्ञानी प्लेटो रेखांकित कर चुके हैं। आदर्श राज्य के अपने सिद्धांत में प्लेटो ने कहा है कि एक आदर्श राज्य को किसी ऐसे दर्शनशास्त्री राजा के द्वारा शासित किया जाना चाहिए जो सर्वाधिक बुद्धिमान हो, तर्क के सर्वोच्च तर्क को रखने वाला हो तथा अपने दृष्टिकोण में वह वैज्ञानिक हो। प्लेटो ने ही सर्वप्रथम पश्चिमी अकादमी – ‘द अकादमी’ की शुरुआत की थी। यह अकादमी समाज एवं राजनीति के प्रति समर्पित थी, तथापि प्लेटो ने इसके द्वार पर स्पष्ट रूप से यह उल्लेख करवाया था कि ऐसे लोग, जिन्हें गणित का ज्ञान नहीं है, को अकादमी में प्रवेश करने की आवश्यकता नहीं है। इसका कारण साधारण-सा था-छात्रों के मध्य विचार में तार्किकता तथा विज्ञान की भावना एवं जिज्ञासा को बढ़ावा देना। अपने स्वामी प्लेटो के समानही अरस्तू ने शिक्षा के अपने सिद्धांत में उन बच्चों के लिए गणित एवं उच्चतर गणित पर अधिक जोर दिया, जिनसे भविष्य का राजा बनने की अपेक्षा थी।

⇒ हमें समाज में विज्ञान के महत्व को समझते हुए वैज्ञानिक सोच को वरीयता देनी चाहिए। यह विडंबनीय है कि समकालीन भारतीय समाज में प्रायः हर स्तर पर वैज्ञानिक सोच का अभाव है, जबकि पश्चिम के समाज ने वैज्ञानिक सोच को विकसित कर अपने समाज को अधिक विविधतापूर्ण एवं समृद्ध बनाया है, श्रेष्ठ वैज्ञानिक दिए हैं और वैज्ञानिक प्रगति के कारण विश्व मंच पर मजबूत पहचान बनाई है। वर्ष 1947 में भारत की साक्षरता दर मात्र 15 प्रतिशत थी, जो कि वर्ष 2011 में बढ़कर 74.0 प्रतिशत हो गई। कहने का आशय यह कि हम साक्षर तो हुए, किंतु वैज्ञानिक नहीं हो सके। आज सही अर्थों में राष्ट्र निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि हम साक्षर नहीं, बल्कि वैज्ञानिक पैदा करें। इसके लिए समकालीन भारतीय समाज में वैज्ञानिक सोच का विकास आवश्यक है, क्योंकि विज्ञान हमसे तार्किक एवं विचारपूर्ण होने की अपेक्षा करता है।

निष्कर्ष :⇒ विज्ञान और समाज अभिन्न रूप से जुड़े हैं। समाज के प्रायः सभी घटक विज्ञान से आच्छादित हैं। विज्ञान हमारे समाज और दैनिक जीवन में रच-बस गया है। जीवन के हर पहलू पर विज्ञान का कब्जा है। समाज और विज्ञान साथ-साथ रहे हैं। कुछ दुष्प्रभावों को यदि छोड़ दें तो विज्ञान ने समाज और मानव कल्याण में अग्रणी भूमिका निभाई है। इसने मानव जीवन को जहाँ सरस और सरल बनाया है, वहीं सुविधाओं की अनेकानेक सौगातें भी दी हैं। ऐसे में समकालीन भारतीय समाज का यह दायित्व बनता है कि वह समाज में वैज्ञानिक सोच के अधिकाधिक विकास पर बल दे। इसके लिए पुरातन विश्वासों, रूढ़ियों एवं अवैज्ञानिक मान्यताओं से बचते हुए, जीवन को तार्किक और विचारपूर्ण बनाते हुए साक्षरता की तरफ नहीं, अपितु वैज्ञानिकता की ओर सधे हुए कदमों से बढ़ने का समय आ चुका है। यही विज्ञान के विकास और समाज के कल्याण का मार्ग है।

बालश्रम

बालश्रम

 

भारत ने अभी तक संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार  बाल अधिकार समझौते की धारा 32 पर सहमति नहीं दी है। जिसमें बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने की बाध्यता है। 1992 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में यह जरूर कहा था, कि अपनी आर्थिक व्यवस्था को देखते हुए हम बाल मजदूरी को खत्म करने का काम रूक-रूक कर सकेंगे क्योंकि इसे एकदम से नहीं रोका जा सकता है, आज 22 साल बीत जाने के बाद हम बाल मजदूरी तो खत्म नहीं कर पाये उल्टे केन्द्रीय कैबिनेट ने बाल श्रम पर रोक लगाने वाले कानून को नरम बनाने की मंजूरी से दी है इस पर अंतिम मुहर संसद में संशोधित बिल पास होने के बाद लगेगी। इसमें सबसे विवादस्पद संशोधन पारिवारिक कारोबार या उद्यमों, एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री और स्पोट्स एक्टिविटी में संलग्न 14 साल से कम उम्र के बच्चों को बाल श्रम के दायरे से बाहर रखने का है। यह संशोधन एक तरह से ‘बाल श्रम’ को आंशिक रूप से कानूनी मान्यता देता है। इस साल पून में सरकार द्वारा फैक्टरी आधिनियम और न्यूनतम मजदूरी अधिनियम में संशोधन की घोषणा की गई ।

 

जो नियोक्ता को बाल मजदूरों की भर्ती करने मे समर्थ बनाता है, नियोक्ता को माता-पिता को देने की 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 5 से 14 साल के बच्चों की कुल आबादी 25.96 करोड़ है। इनमें से 1.01 करोड़ बच्चे मजदूरी है इसमें 5 से 9 साल की उम्र के 25.33 लाख बच्चे और 10 से 14 वर्ष की उम्र 75.95 लाख बच्चे शामिल है। राज्यों की बात करें तो सबसे ज्यादा बाल मजदूर उत्तरप्रदेश (21.76 लाख) में है जबकि दूसरे नंबर पर बिहार है जहाँ 10.88 लाख बाल मजदूर है, राजस्थान में 8.48 लाख, महाराष्ट्र में 7.28 लाख तथा, मध्यप्रदेश में 7 लाख बाल मजदूर है। यह सरकारी आंकड़े है और यह स्थिति तब है जब 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे बाल श्रम की परिभाषा के दायरे में शामिल थे, वैश्विक स्तर पर देखें तो सभी गरीब और विकासशील देशों में बाल मजदूरी की समस्या है। इसकी मुख्य वजह यही है कि मालिक सस्ता मजदूर चाहता है। अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने पूरे विश्व के 130 ऐसे चीजों की सूची बनाइ गई है जिन्हें बनाने के लिए बच्चों से काम करवाया जाता है इसी सूची में सबसे ज्यादा बीस उत्पादन भारत में बनाए जाते है। इनमें बीड़ी, पटाखे, माचिस, ईटै, जूते, कॉच की चूड़ियों ताले, इत्र, कालीन कढ़ाई, रेश्म के कपडे और फुटबॉल बनाने जैसे काम शामिल है। भारत के बाद बांग्लादेश का नंबर है जिसके 14 ऐसे उत्पादों का जिक्र किया गया है। जिनमें बच्चों से काम कराया जाता है।

 

अब बहुत सारे ऐसे काम घरेलु दायरे में आ गये है। जो वास्तव में इन्डस्ट्रीयल है आज हमारे देष में बड़े अस्तर पर छोटे घरेलु धंधे और उत्पादक उद्योग असंगठित क्षेत्र में चल रहे है जो संगठित क्षेत्र के लिए उत्पादन कर रहे है। माचिस के कारखानों में काम करने वाले 50 फिसदी बच्चे होते है जिन्हें दुर्घटना के साथ-साथ सांस की बिमारियो के खतरे बने होते है। इसी तरहे चूड़ियों के निर्माण में बाल मजदूरों का पसीना होता है जहाँ 1000-1800 डिग्री

सेल्सियस के तापमन वाली भटटीयों के सामने बिना सुरक्षा इंतजामों के बच्चे काम करते है। आंकड़े बताते हे कि उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के कालीन उद्योग में जितने मजदूर काम करते है। उनमें तकरीबन 40 प्रतिशत बाल श्रमिक होते है। वस्त्र और हथकरघा खिलौना उद्योग में भी, भारी संख्या में बच्चे खप रहे हैं पश्चिम बंगाल और असम के चाय बागानों में लाखों की संख्या में बाल मजदूर काम करते है। आधिकांश का तो कहीं कोई रिकॉर्ड ही नहीं होता। कुछ बारीक काम जैसे रेश्म के कपड़े बच्चों के नन्हें हाथों बनवाए जाते है।

 

विडम्बना देखिये अभी पिछले साल ही बाल मजदूरी के खिलाफ उल्लेखनीय काम करने के लिए कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था जिनका कहना है कि बच्चों से उनके सपने लेने से ज्यादा गम्भीर अपराध क्या है। और जब बच्चों को उनके माता-पिता से जुदा कर दिया जाता है। उन्हें स्कूल से हटा दिया जाता है, उन्हें तालीम हासिल करने के लिए स्कूल जाने जाते या उन्हें स्कूल से हटा दिया जाता हैं उन्हें तालीम हासिल करने के लिए स्कूल जाने की इजाजत ना देकर कहीं मजदूरी करने के लिए स्कूल जाने की इजाजत न देकर मजदूरी करने मजबूर किया जाता है। या सड़कों पर भिख माँगने के लिए मजबूर किया जाता है। यह सब तो पूरी इनसानियत के माथे पर धब्बा है।

 

बालश्रम को लेकर संवैधानिक प्रावधान

 

अनुच्छेद 21 का- शिक्षा का अधिकार सरकार द्वारा 6 से 14 साल की उम्र के सभी बच्चों को, सरकार द्वारा कानून के ज़रिए निर्धारित रूप से निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाएगी।

 

अनुच्छेद 24 – कारखानों में बच्चों के रोजगार पर निषेध चौदह साल से कम उम्र के किसी भी बच्चे को किसी फैक्टरी या खदान या किसी अन्य खतरनाक रोज़गार

 

में नियोजित नहीं किया जाएगा।

 

अनुच्छेद 39 सरकार द्वारा, विशिष्टतया, अपनी नीति को मज़दूरों के स्वास्थ्य और बल संरक्षण पुरुष एवं महिलाएँ तथा कम उम्र के बच्चों का शोषण न होने देने और आर्थिक जरूरतों के कारण नागरिकों को अपनी उम्र और ताक़त के लिए अनुपयुक्त उद्यम में प्रवेश न करने के प्रति निर्देशित करना होगा।

 

वैधानिक प्रावधान- वैधानिक प्रावधानों के तहत बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम 1986 में लागू किया गया।

भारत में बाल विवाह की समस्या

भारत में बाल विवाह की समस्या एक प्रमुख सामाजिक समस्या है। भारतीय समाज में इसकी जड़े काफी गहरी हैं। इस कुप्रथा का सबसे अधिक खामियाजा अल्पवयस्क बच्चियों को भुगतना पड़ता है।

हमारी ऋग्वैदिक अथवा पूर्व-वैदिक कालीन सभ्यता में बाल- विवाह का कोई अस्तित्व नहीं था। तत्कालीन भारतीय समाज में स्त्रियों की दशा उन्नत थी तथा उन्हें पूरी स्वतंत्रता प्राप्त थी। बच्चों का बचपन छीनने वाली यह कुप्रथा भारतीय समाज के लिए एक अभिशाप जैसी है। यह एक ऐसी कुप्रथा है जिससे हमारा समाज कमजोर और संक्रमित होता है।

भारत में बाल-विवाह की समस्या के पीछे कई वजहें हैं। प्रमुख वजह है साक्षरता का अभाव। साक्षरता के अभाव में हम बाल-विवाह के दुष्परिणामों को भी समझ नहीं पाते और अज्ञानतावश इस कुप्रथा को प्रोत्साहन देते हैं। हमारे देश में बाल-विवाह जैसी सामाजिक कुरीति के प्रति जनजागरूकता एवं जनचेतना की भी काफी कमी है। गांवों-कस्बों में जनचेतना की कुछ अधिक ही कमी देखने को मिलती है और अभिभावक अपने बच्चे का बाल-विवाह करवा देते हैं। यदि इन लोगों में चेतना और जागृति होती तो इन्हें मालूम होता कि वे मासूम नव दंपत्ति को खुशहाली का आशीष नहीं अपितु उसके अभिशप्त जीवन का श्राप दे रहे हैं।

दहेज गरीबी और सामाजिक असुरक्षा जैसे कारणों से भी भारत में बाल-विवाह की समस्या विकराल हुई है। गरीबी का दंश झेल रहे अभिभावकों के पास देने के लिए दहेज नहीं होता है। ऐसे में वे कम उम्र में ही बेटी को ब्याह कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहते हैं। कुछ स्थानों पर स्थितियां इतनी अराजकतापूर्ण हैं कि निम्नतर सामाजिक हैसियत वाले अपनी बेटी को दबंगों की बुरी नजर से बचाने के लिए कम उम्र में ही उसके हाथ पीले कर देते हैं।

भारत के कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं, जिनमें लिंगानुपात में आ रही गिरावट के कारण दुल्हनों की कमी हो रही है। इस कारण कुछ अभिभावकों को यह डर सताया करता है कि संभवतः विवाह योग्य होते-होते उनके पुत्र को दुल्हन ही न मिले। इस सोच के चलते वे बालकाल में ही अपने बेटे का ब्याह कर देते हैं। कुछ लोग बेटी का घर-बार जल्द बसाने के चक्कर में कच्ची उम्र में उसके हाथ पीले कर देते हैं, तो कुछ लोग धार्मिक रूढ़ियों के कारण ऐसा करते हैं। स्पष्ट है कि सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कारणों से देश में बाल-विवाह के मामले बढ़ रहे हैं।

बाल-विवाह के अनेक दुष्परिणाम सामने आते हैं। सबसे पहला दुष्परिणाम यह सामने आता है कि कम वय में विवाह बंधन में बंध जाने के कारण वर और वधू दोनों की शिक्षा बाधित होती है। लड़कियों को अल्पावस्था में ही संतान को जन्म देने और उनकी परवरिश की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। वे कम उम्र में मां बनने के कारण अनेक प्रकार की मानसिक और शारीरिक व्याधियों का शिकार हो जाती हैं। यह भी देखने में आया है कि बालिका वधुएं जहां घरेलू हिंसा से ग्रस्त रहती हैं, वहीं उन्हें अनेक प्रकार के शोषणों का शिकार भी बनाया जाता है। उन्हें खेलने-कूदने और व्यक्तित्व विकास की अवस्था में गृहस्थी संभालने की दुश्वारियां झेलनी पड़ती हैं। उन्हें असमय वैधव्य का भी दंश भी झेलना पड़ता है और एक विधवा के रूप में त्रासद जिन्दगी गुजारनी पड़ती है।

“कम वय में विवाह बंधन में बंध जाने के कारण वर और वधू दोनों की शिक्षा बाधित होती है। इससे साक्षरता दर प्रतिकूल रूप से प्रभावित होती है। पढ़ाई बीच में ही छूट जाती है। लड़कियों को अल्पावस्था में ही संतान को जन्म देने और उनकी परवरिश की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। वे कम उम्र में मां बनने के कारण अनेक प्रकार की मानसिक और शारीरिक व्याधियों का शिकार हो जाती हैं।”

भारत में बाल-विवाह की रोकथाम के लिए कानूनी स्तर पर पहली पहल औपनिवेशिक काल में हुई थी। 28 सितंबर, 1929 को ‘चाइल्ड मैरिज निरोधक एक्ट’ (शारदा एक्ट) पारित किया गया था। यह एक्ट अप्रैल, 1930 से प्रभावी हुआ। इसके तहत वैधानिक विवाह के लिए लड़के की उम्र 18 तथा लड़की की 14 वर्ष होना निश्चित किया गया। मौजूदा समय में 21 वर्ष से कम अवस्था के लड़के तथा 18 वर्ष से कम अवस्था की लड़की का विवाह वैधानिक दृष्टि से निषिद्ध है।

बालविवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006 के जरिए बाल- विवाहों की रोकथाम के प्रावधानों को व्यापक बनाया गया। इसके तहत वर-वधू के माता- पिता सगे संबंधियों बारातियों तथा विवाह कराने वाले पंडित को भी कानून के दायरे में लाया गया। इसमें यह भी प्रावधान है कि यदि वर या कन्या बाल-विवाह के बाद विवाह को स्वीकार नहीं करते तो वे बालिग होने के बाद विवाह को शून्य घोषित करने के लिए आवेदन कर सकते हैं। कानूनों के अलावा बाल-विवाहों की रोकथाम के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा भी अनेक स्तरों पर प्रयास किए जा रहे हैं।

इन प्रयासों की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि इनमें जनसहभागिता बढ़ाई जाए तथा जनचेतना लाने के स्तर पर विशेष प्रयास हों।बाल-विवाह की कुप्रथा के उन्मूलन हेतु पहली आवश्यकता है कि हम साक्षरता और जागरूकता को बढ़ाएं। विशेष रूप से लड़कियों को साक्षर व जागरूक बनाने की दिशा में विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत है] क्योंकि इस कुरीति का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव मासूम लड़कियों पर ही पड़ता है। गरीबी जैसी आर्थिक समस्या एवं दहेज जैसी सामाजिक कुप्रथा पर अंकुश लगाया जाना भी इस समस्या के निवारण में सहायक सिद्ध हो सकता है। हमें उन दूषित परम्पराओं एवं धार्मिक रूढ़ियों का सफाया भी करना होगा जिनसे इस कुप्रथा को प्रोत्साहन मिलता है।

हानिकारक सामाजिक नियमों में बदलाव लाकर युवा महिलाओं को आर्थिक अवसर प्रदान कर तथा विशेष रूप से उन जातियों में जागृति लाकर जिनमें बाल-विवाह के प्रति रुझान ज्यादा है, हम इस समस्या से उबर सकते हैं। कोई भी समस्या लाइलाज नहीं होती है। बस आवश्यकता समग्र और सुचिंतित प्रयासों की होती है। बाल-विवाह की समस्या से हम उबर सकते हैं। जरूरत समग्र प्रयासों की है। प्रयास जारी भी हैं। भविष्य में अच्छे परिणामों की उम्मीद की जा सकती है।

 

छत्तीसगढ़ राज्योत्सव 2024 का पूरा शेड्यूल

 

छत्तीसगढ़ राज्योत्सव

4 नवंबर 2024शाम 4:30 से 5 तक 12 लोक नृत्य झलकियां आर्टिस्ट रिखी क्षत्रिय होंगे

5 बजे से 5:30 बजे तक आदिवृंदम आर्टिस्ट महेंद्र चौहान और ग्रुप

5:30 बजे से 6 बजे तक क्षेत्रीय नृत्य संगीत आर्टिस्ट सुनील सोनी और ग्रुप

6 बजे से 7:15 बजे तक उद्घाटन समारोह

7:15 से 7:45 तक नाम रामायण आर्टिस्ट विद्या वर्चस्व

7:45 से प्लेबैक सिंगर शान की परफॉर्मेंस होगी

5 नवंबर 2024

शाम 5 से 5:30 तक सांस्कृतिक लहर गंगा आर्टिस्ट पुराणिक साहू

5:30 बजे से 6 बजे तक लोकधुन आर्टिस्ट सुरेंद्र साहू भोला यादव ग्रुप

6 बजे से 6:30 तक द मून लाइट रागा, आर्टिस्ट रोहन नायडू और ग्रुप

6:30 से 7:30 बजे तक राज्यपाल की मौजूदगी में मंचीय कार्यक्रम

7:30 से 8:00 बजे तक राजेश अवस्थी का गायन

8 बजे से 8:30 बजे तक लोक गायन होगा आरू साहू का

8:30 से प्लेबैक सिंगर नीति मोहन की परफॉर्मेंस होगी

6 नवंबर 2024

शाम 5 बजे से 6 बजे तक अनुराग स्टार नाइट होगी जिसमें आर्टिस्ट अनुराग शर्मा परफॉर्म करेंगे

6 बजे से 7:55 बजे तक राज्य अलंकरण समारोह चलेगा

7:55 से 8:15 बजे तक इंडिया गोट टैलेंट के आर्टिस्ट मलखम्भ परफॉर्म करेंगे

8 बजे से 8:45 बजे तक जादू बस्तर परफॉर्मेंस होगा आर्टिस्ट सवि श्रीवास्तव परफॉर्म करेंगे

8:45 से इंडियन आइडल फेम पवनदीप और अरूनिता की परफॉर्मेंस होगी।